सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत देश के गरीब परिवारों को सस्ती दरों पर अनाज, चीनी और मिट्टी का तेल मिलने का प्रावधान है। यदि देश के गरीब परिवारों को सही तरह निर्धारित दरों पर प्रति माह यह सामान मिलता तो शायद किसी परिवार को गरीबी या भुखमरी की स्थिति न झेलनी पड़ती, किंतु हम किसी भी गांव के राशन कार्डो का अवलोकन करे तो वितरण व्यवस्था में घोर अनियमितताएं उजागर होंगी। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले की संडीला तहसील की तीन भिन्न ग्राम पंचायतों के तीन भिन्न श्रेणियों के राशन कार्डों पर निगाह डाली जा सकती है। विकास खंड भरावन के आलमपुर ग्राम पंचायत की गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाली फूलमती का कार्ड देखें तो इसमें वर्ष 2007 में एक भी माह में किसी भी सामान का वितरण अंकित नहीं है।
बताया जाता है कि आजादी के बाद से इस ग्राम पंचायत में कभी कोई वितरण हुआ ही नहीं है। ग्राम साहूपुर के छोटेलाल का अंत्योदय श्रेणी का कार्ड देखें तो पहले चार माह का वितरण एक ही बार में चढ़ाया गया दिखाई देता है,जबकि दो माह वितरण फर्जी चढ़ा दिया गया है। ग्राम लालामऊ मवई के अन्नपूर्णा कार्ड देखें तो फरवरी 2006 में आखिरी बार वितरण चढ़ा है। फिलहाल इन कार्ड धारकों को कोई पेंशन भी नहीं मिल रही। साफ जाहिर है कि लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत अपना राशन नहीं मिल रहा। फरवरी 2006 में हरदोई जिले की संडीला तहसील पर लोगों ने राशन कार्डो को लेकर धरना दिया था, जिनमें पिछले पांच वर्षो में अनाज के एक भी दाने या मिट्टी के तेल की एक भी बूंद का वितरण अंकित नहीं था। धरना सत्याग्रह के रूप में था। गांव वालों ने तहसील परिसर तथा वहां स्थित एक सार्वजनिक शौचालय की सफाई भी कर डाली तथा परिसर पर वृक्षारोपण का कार्य भी किया। गांव वाले यह मांग कर रहे थे कि पिछले पांच वर्षो से उन्हे राशन का जो सामान नहीं मिला वह उन्हे दिया जाए। जनता की यह सीधी सी मांग भी भारी पड़ रही थी, क्योंकि भारतीय खाद्य निगम के गोदाम से तो यह राशन का सामान निकल चुका था। अभी धरना चल ही रहा था कि तत्कालीन प्रदेश सरकार के एक प्रभावशाली मंत्री का उप जिलाधिकारी के पास फोन आ गया कि उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को परेशान न किया जाए। इसके बाद उप जिलाधिकारी ने हाथ खड़े कर दिए। लोगों ने धरने को तहसील से जिला मुख्यालय स्थानांतरित करने का निर्णय लिया। तीन दिनों में धरना जिला मुख्यालय पहुंच गया। कुछ ग्रामीणों ने अनशन भी शुरू कर दिया। जिलाधिकारी के ऊपर भी राजनीतिक दबाव तो था ही। उन्होंने भी अपनी असमर्थता व्यक्त की, किंतु धरना और अनशन समाप्त करने की शर्त के रूप में एक ग्राम पंचायत में पिछले छह महीनों का राशन का सामान बंटवाने को तैयार हुए। अंत में जाकर मात्र तीन महीनों का राशन ही इस ग्राम पंचायत के कोटेदार ने बांटा। फिर अन्य ग्राम पंचायतों में भी हरकत पैदा हुई। गांव-गांव में ठीक से राशन वितरण की मांग उठने लगी। जिलाधिकारी के पास वितरण में अनियमितताओं की शिकायतें पहुंचने लगीं। दूसरी तरफ खाद्यान्न माफिया ने भी कमर कस ली। कुछ मामलों में जहां अनियमितताएं स्पष्ट थीं, जिलाधिकारी के लिए कार्रवाई न करना मुश्किल हो गया। कुछ कोटेदार जेल गए, कुछ पर जुर्माना हुआ व शेष निलंबित हुए। हालांकि कई मामलों में निलंबित कोटेदार अपने को पुन: बहाल करवाने में सफल हो जाते है या निलंबन के बाद नई व्यवस्था में भी वितरण की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं आता। किसी ग्राम पंचायत में आजादी के बाद से आज तक राशन का सामान न बंटने की शिकायत है तो कहीं तीन-चार महीनों में सिर्फ एक बार बंटने की शिकायत। कहीं तौलने में गड़बड़ी की शिकायत है तो कहीं निर्धारित दर से ज्यादा पैसा ले लेने की। ज्यादातर जगहों पर बंटने वाले अनाज की गुणवत्ता से लोग असंतुष्ट है। राशन कार्डो की चयन प्रक्रिया को लेकर भी शिकायतें लगभग सभी जगह है। अपात्र लोगों को भी कार्ड मिल गए है। करीब डेढ़ वर्ष पहले बताया गया कि अन्नपूर्णा कार्डधारकों को निर्धारित दस किलोग्राम प्रति माह मुफ्त अनाज की जगह पेंशन मिलेगी। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की सबसे गरीब श्रेणी का अनाज भी बंद हो गया और आज तक इन कार्डधारकों को कोई पेंशन भी नहीं मिली। इन तमाम मुद्दों को लेकर लोग आंदोलित है। यह भारत के सिर्फ एक जिले की ग्यारह सौ पंचायतों में से मात्र कुछ पंचायतों का हाल है। सवाल यह है कि देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत लोगों को जो सामान नहीं मिला उसकी क्या हम ऐसे ही अनदेखी कर दें? प्रशासन के ऊपर बहुत दबाव बनाया जाए तो ज्यादा से ज्यादा बड़ी कार्रवाई होगी कोटेदार को निलंबित करना। दो-तीन महीने राशन का सामान ठीक से बंटता है, फिर स्थिति पुराने ढर्रे पर आ जाती है। कोटेदार भी बहाल हो जाते है।
आखिर राशन का जो सामान लोगों को नहीं मिला और जिसका स्पष्ट प्रमाण है उसकी जवाबदेही तय होनी चाहिए या नहीं? जिन लोगों ने राशन के इस सामान की चोरी की है, क्या भ्रष्टाचार के अन्य मामलों की तरह उसकी वसूली नहीं होनी चाहिए? यह भी सामने आया है कि दिसंबर 2004 व जनवरी 2005 में उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों का करोड़ों रुपयों का सरकारी खाद्यान्न रेलगाड़ी की तीन रैकों में लदवाकर बांग्लादेश भेज दिया गया। मौजूदा सरकार पिछले शासन के दौरान हुए खाद्यान्न घोटाले की जांच करा रही है। इस बात का अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है कि खाद्यान्न माफिया बहुत शक्तिशाली हैं और इसमें अपराधी, नेता, अधिकारी-कर्मचारी व ठेकेदार सभी शामिल हैं। इस भ्रष्टाचार पर काबू पाए बिना इस देश के करोड़ों गरीब परिवारों का भुखमरी से उबरने का रास्ता भी नहीं साफ होता है। यह काम जनता को ही करना पड़ेगा।
[संदीप पांडे, लेखक मैगसेसे पुरस्कार विजेता सामाजिक कार्यकर्ता हैं]
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